* शैली : रोमांच * विषय : सामाजिक
शहर की एक नामी मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करने वाले कबीर को न जाने क्यों आज सुबह से ही ऐसा लग रहा था, जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो. घर से निकलने के बाद से ऑफिस होकर घर लौटने तक कबीर लगातार ऐसी अनुभूतियों से गुज़रता रहा, मानो आसपास मौजूद न होकर भी कोई उसे अपनी मौजूदगी का अहसास दिला रहा हो.
मन ही मन बुरी तरह डर चुके कबीर ने जान बूझकर यह बात किसी से नहीं बतायी, यह सोचकर कि क्या पता कोई यकीन करे न करे, कर सकते कुछ नहीं उल्टा मज़ाक ही उड़ायेंगे सभी. यहाँ तक कि उसने अपनी प्रेमिका नयना से भी अपनी इन अनुभूतियों का ज़िक्र हरगिज़ नहीं किया, इस डर से कि कहीं मॉडर्न ख्यालों वाली हाईली- क्वालिफाईड उसकी यह गर्लफ्रेंड पागल समझकर उसका साथ न छोड़ दे.
हमेशा अँधेरे में रहना पसंद करने वाला कबीर आज अँधेरे से यकायक कतराने लगा था. ऐसा पहली बार देखने को मिला, जब घड़ी की सूईयाँ रात के दो बजने का संकेत कर रही थीं, पर उसके सभी कमरों के बल्बों के स्विच ऑंन थे. नींद थी-कि आँखों से कोसों दूर भाग चुकी थी. करवटें बदल कर भी चैन कहाँ मिलना था, जो मिल जाता ! बुरी तरह घबराया हुआ वह, कभी पानी पीकर अपने सूखते हुए गले को तर करता, तो कभी बिस्तर से उठकर कमरे भर में टहलने लगता. रात बढ़ने के साथ ही घबराहट और भी बढती जा रही थी. हालत यह हो चुकी थी कि अब हर आहट यह कहने लगी थी कि हो न हो, कोई तो ऐसा ज़रूर है जो मेरे संग इस कमरे में मौजूद है.
तेज़ हवाओं की सरसराहट के साथ पर्दों के उड़ने पर अचानक से डर के मारे उसकी चीख निकल पड़ती है, "क...क...कौन है ? कौन है वहाँ ?"
"कितने अफ़सोस की बात है कि तुम मुझे नहीं पहचानते... !!!" - रात के गहरे सन्नाटे में किसी अनदिखे शख्स की एक भारी-भरकम आवाज़ उसके रोंगटे खड़े कर देती है.
वह दुबारा अपना सवाल दोहराता है, "क..क..क..क ...कौन हो तुम ?"
"मैं..!!! मैं वो हूँ, जो तुम्हारे साथ ही पैदा हुआ, तुम्हारे संग ही पला-बढ़ा. मेरा बचपन, मेरी किशोरावस्था और जवानी के अबतक के सभी पल तुम्हारे साथ ही व्यतीत हुए हैं. तुम मानो या न मानो, मैं ही तुम्हारा सच्चा हमसफ़र हूँ, जो सुख में-दु:ख में, अच्छे में-बुरे में, हर दौर में तुम्हारा साथ निभाता है. पर, फिर भी तुमने अपने इस हमदर्द को अन्जान बना रखा है. "
कबीर का गला फिर से सूखने लगता है. वह दोबारा कुछ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता. ऐसे में, वह अनदिखी शख्सियत खुद अपना संवाद आगे बढ़ाती है, "आओ...आओ, मैं दिखाता हूँ कि मैं कौन हूँ. "
कबीर को ऐसा लगता है जैसे कोई उसका हाथ पकड़कर अपने दिशा-निर्देश पर चलने के लिए प्रेरित कर रहा हो. एक मुहाने पर पहुंचकर उसके कदम स्वयं ही ठहर जाते हैं, जहाँ उसका सामना खुद अपने अक्स यानी अपनी परछाईं से होता है. "पहचाना..??"
" ये....ये तो मेरी परछाईं है."
एक लम्बी साँस लेते हुये, "हँ...अफ़सोस कि तुम फिर भी न पहचान सके. तुम क्या ! आज के इस दौर में हर किसी की यही कहानी है.तभी तो ईश्वर की बनायी यह सुन्दर धरती आज तबाही के कगार पर है. मैं..मैं ..करनेवाले तुम जैसे स्वार्थी और लोभी इन्सान जब खुद अपने अक्स की पहचान नहीं कर पाते, तो भला दूसरों के दु:ख-दर्द और तकलीफों को क्या समझ पाओगे ? मेरे दोस्त ! सिर्फ इन्सान का जन्म पा लेने भर से इन्सान-इन्सान नहीं बन पाता. इन्सान बनने के लिए इन्सानियत चाहिए होती है, जो अब नाम-मात्र को ही देखने को मिलती है. सिर्फ मेरी ही नहीं, तुम जैसे प्रत्येक व्यक्ति के अक्स की यही व्यथा है. बुरे कर्म तुम सभी करते हो, दागदार हम बनते हैं. तुम्हारा क्या है ? तुम तो एकदिन इस दुनियाँ से रुखसत हो लोगे, जबकि तुम्हारे रूप में याद हमें रखा जायेगा. इसलिए मेरे दोस्त, ऐसा कोई काम न करो, जिसके परिणाम में तुम्हें खुद अपनी ही परछाईं से डर लगने लगे. बस यही इल्तज़ा करने की खातिर मैं तुमसे मिलना चाहता था. "
अबतक सुबह हो चली थी. पंछी चहकने लगे थे. दूधवाले के डोर-बेल बजाने के साथ ही वह आवाज़ शान्त हो गयी. इस नए सुबह के उजालों ने कबीर के जीवन में एक नए उजाले का प्रवेश किया. उसका सारा खौफ दूर हो चुका था. अपने अक्स की हर इल्तज़ा को ताउम्र निभाने का खुद से वादा कर वह जीवन की एक नयी और सच्ची शुरुआत करता है.