ऋतुराज वसन्त के शुभागमन से धरा पर सर्वत्र आनन्द की वृष्टि हो रही है. प्रकृति के कण-कण में नवचेतना का संचार हो रहा है. पुष्प-पल्लवों के भार से वृक्ष लद गये हैं. दक्षिण का शीतल मन्द सुगंधित समीर मानव जगत को ऋतुराज वसन्त के आगमन का हर्षोल्लासपूर्ण संदेश दे रहा है. ऋतुराज के इस अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर विश्व-साहित्य के महाकवियों का मन मग्न हो उठा, जिसके पश्चात वे वसन्त-वैभव का चित्रण किये बिना न रह सके. विविध भाषाओं के कवियों ने अपनी-अपनी काव्य-योग्यता के अनुसार ऋतुराज का गुणगान किया है. इन अमर महाकवियों की वासन्ती-सुषमा से आज विश्व-साहित्य रसान्वित हो रहा है.
'गीत-गोविन्द' के अमर गायक महाकवि जयदेव ने रसराज श्रीकृष्ण के साथ ही ऋतुराज वसन्त के भी गीत गाये. उनकी लेखनी चल पड़ी-
"वसन्ते वासन्ती कुसुम सुकुमारैरवयध्वै
भ्रमन्तीं कान्तारे बहुविहित कृष्णानुशरणाम्।
अमन्द कन्दर्पज्वरजनित चिन्ताकुल तथा
चलद्वाधां राधां सरसमितमूचे सहचरी।।"
अर्थात् वसन्त ऋतु में माधवीलता के पुष्पों से भी अधिक कोमल अंगवाली निर्जन वन में भी श्रीकृष्णचंद्र के पीछे बार-बार घूमती हुयी और अत्यंत कामज्वर से उत्पन्न चिन्ता से व्याकुल राधाजी से किसी सखी ने सरलतापूर्वक कहा-
"ललितलबंगलतापरिशीलन कोमल मलय समीरे,
मधुकरनिकरकरम्बित कोकिल कूंजित कुञ्ज कुटीरे।
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते,
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरन्ते।।"
अर्थात् हे राधे! सुन्दर लौंग की लता के स्पर्श से मंद-मंद बहती हुयी मलयाचल की वायु से युक्त तथा भौरों की झुण्ड से झंकारित व कोयल की कूक से कूंजित निकुञ्जवाले और विरहीजनों को पीड़ा पहुँचाने वाले इस सरस वसन्त में श्रीकृष्णचन्द्र विहार करते हुये युवति गोपिकाओं के साथ नृत्य कर रहे हैं. वसन्त ऋतु के मधुमय वातावरण में संसार का प्रत्येक प्राणी मुग्ध हो उठा है. एक ओर वन में भौंरे मतवाले बनकर गुंजार कर रहे हैं, तो दूसरी ओर मृगों का झुण्ड सुरभित मंद पवन के स्पर्श का आनन्द लेता हुआ मोह के वशीभूत हो रहा है.
महाकवि कालिदास ने उनकी मोहावस्था को निरखा और उनकी लेखनी से यह श्लोक निकल पड़ा-
"मधु: द्विरेफ: कुसुम कपात्रे,
पादौ प्रियां स्वामनुवर्तमान:।
श्रृंगेण च स्पर्श निमीलिताक्षी,
मृगी मकंडूयत कृष्णसार:।।"
अर्थात् अपनी सहचरी के साथ एक ही पुष्प पर बैठकर रसपान करता हुआ भौंरा एक ही प्याले में साथ-साथ मधुपान करने का आनन्द ले रहा है. अपनी कमर पर अपने सहचर मृग के सींग का स्पर्श पाते ही सात्विक आनन्दविभोर होकर आँखें मूँद लेने वाली आत्मविस्मृत सी हिरनी को कृष्णसार मृग रह-रहकर अपनी सींग से खुजला रहा है. आम्रमञ्जरियों से लदे तरु फूली हुयी माधवीलताओं के आलिंगन में आबद्ध है. कैसा अपूर्व सम्मिलन है इनका-
"पर्याप्त पुष्पकतवकस्तनाभ्य: स्फुरत्प्रवालोष्ठमनोहराभ्य :।
लतावधूभ्यस्तरवोप्य वायुर्विनम्रशाखाभुजबन्धनानि ।।"
पीत एवं पुष्ट पयोधरों के सदृश सघन सुमन गुच्छों से लदी तथा तरुणियों के मूँगे जैसे लाल-लाल होठों के समान मनोहर नव किसलयों से सुशोभित लतारूपी रमणियों के मधुर आलिंगनपाश में उलझने के लिये वृक्षों ने भी आत्मविभोर होकर अपनी शाखायें कुछ नीचे की ओर झुका दीं.
हिन्दी साहित्य में अगणित कवियों ने वसन्त का वर्णन कर अपनी सरसता का परिचय दिया है. महाकवि विद्यापति का वसन्त-वर्णन तो विदेशों में भी समादृत हुआ.
"नवीन पल्लव बैठने के लिये दिया गया है. श्वेत कमल मांगलिक कलश बन गया. पुष्प पराग ही गंगाजल हुआ. लाल अशोक दीपक बन गया है. मानिनी ! आज का दिन अत्यंत शुभकारी है. वसन्त रूपी दूल्हे का चुम्बन करो. सम्पूर्ण चन्द्रमा ही पवित्र दही हो गया. भ्रमरी घूम-घूमकर सबको बुला लायी है. पलाश के पुष्प सिन्दूर के समान प्रतीत होने लगे. केवड़े का पराग वस्त्रों के लिये सुगन्ध बिखेरने लगा."
कवि-श्रेष्ठ विद्यापति कहते हैं कि रसिक जन ही इसका अनुभव कर सकते हैं.
हिन्दी के आधुनिक कवियों में महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ने वसन्त के मादक परिवेश में लता-तरुवर को पति-पत्नी के रूप में चित्रित किया है-
"सखि वसन्त आया,
भरा हर्ष वन में मन नवोत्कर्ष छाया।
किसलय-वसना नव-नव लतिका,
मिला मधुर प्रिय-उर तरुपति का।
मधुर वृन्द-वन्दी-पिव स्वर नभ सरसाया ।।"
बंगला साहित्य के एक अमर कवि ने नववधू को ही वसन्त के फूलों का अभिनन्दन अर्पित किया है. अर्पण की सामग्री में कवि ने कुमकुम, चन्दन और कंकन आदि के साथ ही चुम्बन का भी उल्लेख किया है. समस्त प्रकृति ही अर्ध्य बनकर वधू को अर्पित हो गयी है -
"भोगो वधु सुन्दरी, तुमा मधु मंजरी,
पुलकित चम्पार, लहो अभिनन्दन!
पर्णेर पात्रे, फाल्गुन रात्रे,
मुकुलित मल्लिका माहयेर बन्धन
एनेछी वसन्तेर अंजुलि गंधेर,
पलाशेर कुमकुम चांदनीर चन्दन ।।"
अन्त में जर्मन कवि हेनरिक हाइ के वसन्त गीत का भावानुवाद प्रस्तुत है, जिसमें कवि की कल्पना की उड़ान देखने योग्य है-
"गूँजो नूतन वसन्त गीत, उड़े चलो नील नभ भेंटकर।
मुकुलित कुसुमों के भवन की ओर चलो।
दीखे कहीं राह में गुलाब तो यों कहना-
सखि! मेरे कवि का प्रणाम लो।।"