जिसप्रकार बसंत को ऋतुराज कहा गया है, उसीप्रकार साहित्य में सर्वत्र फागुन को महीनों का राजा माना गया है. वस्तुत: फागुन का आगमन ही होता है मस्ती का संदेश लिये हुये. उसके आते ही प्रकृति में नवचेतना के संचार हो उठते हैं. गुलाब, जूही, चम्पा, चमेली, कचनार तथा मल्लिका आदि नयनाभिराम पुष्पों से वनभूमि अत्यंत मनोरम हो उठती है. इसीप्रकार मानव के अंग-प्रत्यंग में भी मानो मस्ती का सागर हिलोरें मारने लगता है. तभी तो, फागुन के आते ही ढोल, मंजीरा, झाँझ और मृदंग के सम्मिलित स्वरों की ताल पर चौताल की मधुर रागिनी गूँज उठती है. कवि संदेह में पड़ जाता है कि प्रकृति में नवचेतना भरनेवाला यह कौन आ पहुँचा? परन्तु, अगले ही पल वह पहचान लेता है कि यह तो महीनों का राजा फागुन है. तात्पर्य यह है कि फागुन का अवतरण प्राणिमात्र के लिये नवजीवन का सन्देश देनेवाला होता है. इस फागुन में जहाँ एक ओर अशोक स्वर्ण फूल बन जाता है, वहीं दूसरी ओर चम्पा भी मदमस्त हो झूलने लगती है. फागुन के आगमन पर आनन्दित एक कवि के मन में संसार के व्यर्थ झमेलों को छोड़कर होली खेलने की तीव्र लालसा जाग पड़ी और उसने उत्साह व उमंग में भरकर कहा-
"मस्त महीना फागुन का है, मचा हुआ रसरंग।
छोड़ो जग के व्यर्थ झमेले, चलो हमारे संग।
मजे में होली गायेंगे।। "
फागुन की इस प्रभावोत्पादक उमंग में आपस के सम्बंध भी अछूते नहीं रह पाते. सम्भवत: इसीलिये यह कहावत प्रसिद्ध है कि - "फागुन में बाबा देवर लागे।"
कवियों ने जिसप्रकार ऋतुराज बसंत को अपने मानस-राजसिंहासन पर आसीन कराया है, उसीप्रकार कामदेव की भाँति फागुन भी प्रकृति की रंगीन वनस्थली में जन-मन को अपने कोमल बाणों से आह्लादित कर अपना राजसी वैभव प्रदर्शित करता है. कवि नरेन्द्रदेव के शब्दों में-
"फाल्गुनेर हे नव फाल्गुनी!
आज ओ ताई सुनी।
प्रसून-गाण्डीव वेतेन मुहर्मुहू दंड टंकार,
सम्भोगेर संगीत झंकार।
दिगंत छापिया उठे जब,
मदनेर आनन्द उत्सवे।।"
सावन और फागुन, ये दोनों महीने प्रेमी-प्रेमिका के लिये संयोगावस्था में जितने ही आह्लादक होते हैं, वियोगावस्था में उतने ही दु: खदायी भी सिद्ध होते हैं. कवि की कल्पनाओं में विरह की वेदना से व्याकुल नायिका सावन अथवा फागुन के महीने में जब अपने प्रेमी की याद में तड़पती है तो उससे जुदा हुये नायक का हृदय भी उसी दर्द का अहसास कर अपनी प्रेमिका का आलिंगन करने हेतु विक्षिप्त हो उठता है. साहित्य के अनेकों पन्ने ऐसे दृश्यों से भरे पड़े हैं. इसी क्रम में एक वियोगिनी की दशा का चित्रण करते हुये एक कवि ने लिखा है -
"फागुन महीना की कहीना परैं बातें,
दिन-रातैं जैसे बीतत सुनते डफ घोरको।
कोऊ उठै तान गाय प्रान बान पैठि जाय,
हाय चितबिध पै न पाऊ चितचोर को।।
मचि है चुहुल चुहूँ दिसि चोंप चाचरि सों,
कासो कहौ सहौ हौ वियोग झकझोर कों।
मेरो मन आली या बिसासी बनमाली बिन,
बावरे लौ दौरि-दौरि परैं सब ओर कों।।"
ऐसे ही एक वर्णन में श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा कर रही राधिकाजी तारे गिन-गिनकर रात बिताती हैं. फागुन के आने पर भी जब श्रीकृष्ण के दर्शन नहीं होते तो उनकी विरह-वेदना असह्य हो उठती है. वह कुछ समझ नहीं पातीं कि उनके आतुर प्राण अब किसको पुकारें -
"फागुन एलो द्वारे, काहे जा घर नाई।
परान डाके कारे, माविश नाहीं पाई।।"
फागुन बीत गया पर श्रीकृष्ण नहीं आये, परन्तु फागुन के प्रति राधिकाजी की निष्ठा पूर्ववत बनी हुयी है. सम्भव है अगले फागुन में प्रियवर आ जायें, इसीलिये वह कहती हैं -
"फागुन फगुआ बीत गये ऊधो,
हरि नहिं आये मोर।
अबके जो हरि मोर अइहें,
रंग खेलब झकझोर।। "
उधर श्रीकृष्ण का व्याकुल मन आन्तरिक रूप से अपनी प्रियतमा राधा को सांत्वना देते हुये कहता है -
"मूंदै आँख तो मैं दिखूँ, तोसौं कहाँ मैं दूर।
मैं ही सावन-फागुनो, मैं ही ब्रज की धूर।।
रूप धूप सब भेद है, प्रेम का चोखा रंग।
होली कब सैं होय रही, भीग रहे हैं अंग।।"