श्रद्धांजलि : जिन्होंने मुझे जन्म दिया

श्रद्धांजलि : जिन्होंने मुझे जन्म दिया
आशिक़ नहीं हूँ फिर भी, की इश्क़ की ख़ता है,
मेरा इश्क़ आपसे है,ये आपकी सज़ा है .
है आपके भरोसे,बाकी की ज़िन्दगानी,
करते हैं ग़र शिकायत, इसमें भी इक मज़ा है.
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लोकगीतों में चैत्र का महीना

होली! होली !! होली !!! बीत गयी होली, सबको रंगों में सराबोर करके.  इसके साथ ही फागुन का मस्त महीना भी वर्षभर के लिये चला गया.  परन्तु, उसके जाते ही चइत राजा सिंहासन पर आसीन हो गये. चइता का लोकगायक गा उठा-
"फागुन बीतले चइत राजा अइले, आजु चइत हम गाइब हो रामा।"
चैत्र मास को राजा क्यों कहा गया? इसके जवाब में प्रबुद्धजन कहते हैं कि इसी पवित्र मास में संसार के सबसे बड़े आदर्शपुरुष राजाधिराज भगवान श्रीरामचन्द्र ने अवतार लिया था, अत: यह मास स्वत: ही गरिमामय स्थिति को प्राप्त करता है. इसके अतिरिक्त इसी माह में सतयुग के आरम्भ की तिथि सहित विक्रम संवत के नववर्ष का शुभारम्भ और नौगौरी व नौदुर्गा की आराधना के पर्व वासंतिक नवरात्रि का उत्सव इसके महत्व को बढ़ा देता है. इस माह के वासंती वातावरण में प्रकृति का मनमोहक रूप निखर उठता है. कृषकों के खलिहानों में अन्न की बहार आ जाती है और धरती नीली-पीली चादर ओढ़े नयी-नवेली दुल्हन सी दिखायी पड़ने लगती है. पेड़-पौधों में नवीन कोपलें निकल आती हैं, मानों पुराने वस्त्रों को उतारकर नया वस्त्र धारण कर लिया हो. आमों की झुरमुट से कोयल की मधुर रागिनि गूँजने लगती है.
  अपने इष्टदेव भगवान श्रीराम के जन्म लेने के कारण महाकवि तुलसीदास को भी यह मास अत्यंत प्रिय है. प्रभु के जन्मोत्सव का वर्णन करते हुये गोस्वामीजी चैत्रमास की प्रशंसा में लिखते हैं-
"नवमी तिथि मधुमास पुनीता।
सुकल पच्छ अभिजीत हरिप्रीता।।
मध्य दिवस अति सीत न घामा।
पावन काल लोक बिश्रामा।।"
इसप्रकार चैत्र को मधुमास की संज्ञा भी दी जाती है, जिससे इसके माधुर्य का सहज परिचय प्राप्त होता है.    
  जिसप्रकार फागुन के महीने में ध्रुपद और धम्मार की धूम मची रहती है, उसीप्रकार होलिका-दहन के बाद से ही धरती-वंदना के साथ भोजपुरी के लोकगीत 'चइता' का गान भी आरम्भ हो जाता है. चइता गाते समय कई लोग एकसाथ बैठकर ढोलक-झाल-मंजीरे पर 'आहो रामा!' का ठेका लगाते हुये ऊँचे स्वर में गाते हैं. चइता को बहुत से लोग 'घांटों' भी कहते हैं. गाँवों में रात्रि के दूसरे प्रहर में जब चइता गाया जाता है, तब पूरा वातावरण संगीतमय बन पड़ता है. दो दलों में विभक्त गायकगण एक-दूसरे का साथ देते हुये बारी-बारी से उमंग में भरकर घुटनों के बल खड़े होकर पूरे वेग सहित एक-दूसरे का साथ देते हुये बारी-बारी से समवेत स्वरों में गाते हैं. 
  चइता में ग्रामीण-जीवन का बड़ा ही सजीव चित्रण देखने को मिलता है. कहीं पर प्रेमरस की झाँकी मिलती है, तो कहीं करुण रस का प्रवाह. संयोग व विप्रलम्भ श्रृंगार का अनूठा वर्णन बड़ा ही हृदयस्पर्शी होता है.  इन गीतों में पनघट पर ग्रामीण बालाओं के पारस्परिक हास-परिहास का वर्णन भी उपलब्ध होता है. चइता में एक ओर राम और कृष्ण से सम्बंधित गीत मिलते हैं, तो दूसरी ओर सांसारिक नायक-नायिका के प्रेम और विरह का मार्मिक चित्रण.
  चइता गीतों के रचनाकारों में बुलाकीदास या बुल्ला साहब का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है. एक गीत में श्रीराम जन्मोत्सव के समय का वर्णन मन को लुभा जाता है-
 "रामा रामा रामा चइत अयोध्या,
राम जनमलन हो रामा।
घरे घरे बाजल अवध बधइया हो रामा।
केहु लुटावेला अन्न-धन सोनवा हो रामा।
केहु लुटावे धेनु-गइया हो रामा।"
इसीप्रकार, श्रीकृष्ण से सम्बंधित एक चइता गीत में यमुना में जल-क्रीडा कर रहे कान्हा के अचानक अन्तर्ध्यान हो जाने पर गोपियाँ व्याकुल हो उठती हैं-
"रामा आहो! मालिक हमरो हेरइले,
हो रामा! ओहि जमुना में।
केहु नाहिं खोजेला हमरो पदारथ,
हो रामा! ओहि जमुना में।
रामा आहो! ओहिरे जमुनवा के चीकट मटिया-
चलत पाँव बिछलइले,
हो रामा! ओहि जमुना में।
रामा आहो!
ओहिरे जमुनवा के करिया मटिया-
देखत मन घबरइले,
हो रामा! ओहि जमुना में।"
  चैत्र का महीना ऐसा होता है जब कोयल भी अपनी मधुर रागिनी से कानों में अमृत-रस घोल देती है. ऐसे मनमोहक वातावरण में रसिक शेखर श्रीकृष्ण भी भक्तों को आनन्दविभोर करते रहते हैं. प्रात: काल पंछियों के कलरव से ही यह भान हो जाता है कि रात्रि बीत गयी, भोर हो गया. ऐसे में, नटवरनागर श्रीकृष्ण को निद्रा से जगाने के लिये गाया जाता है-
"जागिये ब्रजराज कुँवर पंछी बन बोले।"
परन्तु एक समय ऐसा हुआ जब कोयल अर्द्धरात्रि में ही बोलने लगी. यशोदानन्दन सोये हुये थे. ऐसे असमय सखियों को कोयल का कूकना बहुत ही बुरा लगा. वे उसे कोसती हुयी कहने लगीं-
"सुतल कन्हइया के जगवलू हो कोइलरि,
तोरी मीठी बोलिया।
रोज तू ही कोइलर बोलेलू भोर भिनसरवां हो रामा।
आज बोललू आधी रतिया हो रामा।
होत सबेर कोइलर
तोर खोतिला उजरबो हो रामा।
रामा आहो! घनी बगिया कटवइबों हो रामा।"
अर्थात्, रे कोयल! तेरे बोलने का समय तो प्रात: काल होता है, इस असमय आधीरात में बोलकर तू हमारे प्रियतम श्रीकृष्ण को क्यों जगा रही है? प्रात: काल होते ही तेरा घोंसला उजड़वा दूँगी और घने बाग को कटवा दूँगी ताकि हमारे प्रियतम सुखपूर्वक सो सकें.
  एक गीत में गाँव की एक स्त्री देर तक सोनेवाले अपने पति को जगाती हुयी अपनी ननद से कह रही है-
"रामा सांझहि के सूतल, फुटली किरिनिया हो रामा।
तबो नाहिं जागेला, हमरा बलमुआ हो रामा।
राम चूर घींचि भरलीं, पइरिया घींचि मरली हो रामा।
तबो नाहिं जागेला, सइयाँ अभागा हो रामा।
रामा तोरा लेखे ननदी तोर भइया, निंदिया के मातल हो रामा।
रामा मोरा लेखे चान सुरूजवा छपित भइले हो रामा।"
  चैत्र मास में एक पति-वियोगिनी नायिका चिर-व्यथा से अत्यंत विह्वल होकर दु:ख से कातर हो उठती है. देवर इतना छोटा है कि उससे हँसी-ठिठोली करके वह अपना दिल भी नहीं बहला सकती. वह अपने आँचल को कागज और आँख के काजल को स्याही बनाकर परदेसी पति को पत्र लिख रही है-
"आहो रामा पिया परदेसिया, देवर घर लरिका हो रामा।
केसे कहों मैं दिलवा के बतिया हो रामा?
केथिया के करबों कगदवा हो रामा?
केथिया के करबों सियहिया हो रामा?
अचरा के करबों कगदवा हो रामा।
कजरा के करबों सियहिया हो रामा।"
  एक अन्य चइता गीत में पति-विरह की व्यथा से व्याकुल ग्राम्या अपने मन की वेदना प्रकट करते हुये कह रही है-
"आइल चइत उत्पतिया हो रामा।
पति नही भेजे पतिया हो रामा।
बिरही कोयलिया सबद सुनावे,
फिर नहिं आवे इ रतिया हो रामा।
बेला-चमेली फूले बगिया में,
महकि उठल मोर अंगिया हो रामा।"
* लेखक  : गौरीशंकर श्रीवास्तव " दिव्य "
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